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लियो टॉलस्टॉय की रचनाएँ


2
उस रात धर्म सिंह जरा भी नहीं सोया। गरमी की ऋतु में रातें छोटी होती हैं, शीघ्र प्रातःकाल हो गया। दीवार में एक झरोखा था, उसी से अंदर उजाला आ रहा था। झरोखे के द्वारा धर्म सिंह ने देखा कि पहाड़ी के नीचे एक सड़क उतरी है, दाईं ओर एक मरहठे का झोपड़ा है। उसके सामने दो पेड़ हैं। द्वार पर एक काला कुत्ता बैठा हुआ है। पास एक बकरी और उसके बच्चे पूँछ हिलाते फिर रहे हैं। एक स्त्री चमकीले रंग की साड़ी पहने पानी की गागर सिर पर धरे हुए एक बालक की उंगली पकड़े झोपड़े की ओर आ रही है। वह अंदर गयी कि लाल दाढ़ी वाला मरहठा रेशमी कपड़े पहने, चांदी के मुट्ठे की तलवार लटकाए हुए बाहर आया और सेवक से कुछ बात करके चल दिया। फिर दो बालक घोड़ों को पानी पिला कर लौटते हुए दिखाई पड़े। इतने में कुछ बालक कोठरी के निकट आ कर झरोखे में टहनियाँ डालने लगे। प्यास के मारे धर्म सिंह का कंठ सूखा जाता था। उसने उन्हें पुकारा, परंतु वे भाग गए।
इतने में किसी ने कोठरी का ताला खोला। लाल दाढ़ी वाला मरहठा भीतर आया। उसके साथ एक नाटा पुरुष था। उसका साँवला रंग, निर्मल काले नेत्र, गोल कपोल, कतरी हुई महीन दाढ़ी थी। वह प्रसन्नमुख हँसोड़ था। यह पुरुष लाल दाढ़ी वाले मरहठे से बहुत बढ़िया वस्त्र पहने हुए था, सुनहरी गोट लगी हुई नीले रंग की रेशमी अचकन थी। चांदी के म्यान वाली तलवार, कलाबत्तू का जूता था। लाल दाढ़ीवाला मरहठा कुछ बड़बड़ाता धर्म सिंह को कनखियों से देखता द्वार पर खड़ा रहा। साँवला पुरुष आकर धर्म सिंह के पास बैठ गया और आँखें मटका कर जल्दी-जल्दी अपनी मातृभाषा में कहने लगा- बड़ा अच्छा राजपूत है।
धर्म सिंह ने एक अक्षर भी न समझा- हाँ, पानी माँगा। साँवला पुरुष हँसा, तब धर्म ने होंठ और हाथों के संकेत से जताया कि मुझे प्यास लगी है। साँवले पुरुष ने पुकारा- सुशीला!
एक छोटी-सी कन्या दौड़ती हुई भीतर आई। तेरह वर्ष की अवस्था, साँवला रंग, दुबली पतली, नेत्र काले और रसीले, सुंदर बदन, नीली साड़ी, गले में स्वर्णहार पहने हुए। साँवले पुरुष की पुत्री मालूम पड़ती थी। पिता की आज्ञा पाकर वह पानी का एक लोटा ले आई और धर्म सिंह को भौंचक्की होकर देखने लगी कि वह कोई वनचर है।
फिर खाली लोटा लेकर सुशीला ने ऐसी छलांग मारी कि साँवला पुरुष हँस पड़ा। तब पिता के कहने से कुछ रोटी ले आई। इसके पीछे वे सब बाहर चले गए और कोठरी का ताला बंद कर दिया।
कुछ देर पीछे एक सेवक आकर मराठी में कुछ कहने लगा। धर्म ने समझा कि कहीं चलने को कहता है। वह उसके पीछे हो लिया, बेड़ी के कारण लंगड़ा कर चलता था। बाहर आकर धर्म ने देखा कि दस घरों का एक गाँव है। एक घर के सामने तीन लड़के तीन घोड़े पकड़े खड़े हैं। साँवला पुरुष बाहर आया और धर्म को भीतर आने को कहा। धर्म भीतर चला गया, देखा कि मकान स्वच्छ है, गोबरी फिरी हुई है, सामने की दीवार के आगे गद्दा बिछा हुआ है। तकिए लगे हुए हैं। दाईं बाईं दीवारों पर परदे गिरे हुए हैं। उन पर चांदी के काम की बंदूकें, पिस्तौलें और तलवारें लटकी हुई हैं। गद्दे पर पाँच मरहठे बैठे हैं। एक साँवला पुरुष दूसरा लाल दाढ़ी वाला और तीन अतिथि- सब भोजन कर रहे हैं।
धर्म सिंह धरती पर बैठ गया। भोजन से निश्चिंत होकर एक मरहठा बोला- देखो राजपूत, तुम्हें दयाराम ने पकड़ा है, (साँवले पुरुष की ओर उंगली करके) और संपतराव के हाथ बेच डाला है, अतएव अब संपतराव तुम्हारा स्वामी है।
धर्म सिंह कुछ न बोला। संपतराव हँसने लगा।
मरहठा- वह यह कहता है कि तुम घर से रुपए मँगवा लो, दंड दे देने पर तुमको छोड़ दिया जाएगा।
धर्म सिंह- कितने रुपए?
मरहठा- तीन हजार।
धर्म सिंह- मैं तीन हजार नहीं दे सकता।
मरहठा- कितना दे सकते हो?
धर्म सिंह- पाँच सौ।
यह सुनकर मरहठे सिटपिटाए। संपतराव दयाराम से तकरार करने लगा और इतनी जल्दी जल्दी बोलने लगा कि उसके मुँह से झाग निकल आया। दयाराम ने आँखें नीची कर लीं थोड़ी देर में मरहठे शांत हुए और फिर मोलतोल करने लगे। एक मरहठे ने कहा- पाँच सौ रुपए से काम नहीं चल सकता। दयाराम को संपतराव का रुपया देना है। पाँच सौ रुपए में तो संपतराव ने तुम्हें मोल ही लिया है, तीन हजार से कम नहीं हो सकता। यदि रुपया न मँगाओगे तो तुम्हें कोड़े मारे जाएँगे।
धर्म ने सोचा कि जितना डरोगे, यह दुष्ट उतना ही डराएँगे। वह खड़ा होकर बोला- इस भले मानुस से कह दो कि यदि मुझे कोड़ों का भय दिखाएगा तो मैं घर वालों को कुछ नहीं लिखूँगा। मैं तुम चांडालों से नहीं डरता।
संपतराव- अच्छा, एक हजार मँगाओ।
धर्म सिंह- पाँच सौ से एक कौड़ी ज्यादा नहीं। यदि तुम मुझे मार डालोगे तो इस पाँच सौ से भी हाथ धो बैठोगे।
यह सुन कर मरहठे आपस में सलाह करने लगे। इतने में एक सेवक एक मनुष्य को लिए हुए भीतर आया। यह मनुष्य मोटा था, नंगे पैर, बेड़ी पड़ी हुई। धर्म सिंह उसे देख कर चकित हो गया। यह पुरुष चरन सिंह था। सेवक ने चरन सिंह को धर्म के पास बैठा दिया। वे एक दूसरे से अपनी बिथा करने लगे। धर्म सिंह ने अपना वृत्तांत कह सुनाया। चरन सिंह बोला- मेरा घोड़ा अड़ गया, बंदूक रंजक चाट गई और संपतराव ने मुझे पकड़ लिया।
संपतराव- (फिर) अब तुम दोनों एक ही स्वामी के वश में हो। जो पहले रुपया दे देगा, वही छोड़ दिया जाएगा। (धर्म सिंह की ओर देख कर) देखा, तुम कैसे क्रोधी हो और तुम्हारा साथी कैसा सुशील है। उसने पाँच हजार रुपए भेजने को घर लिख दिया है, इस कारण उसका पालन-पोषण भलीभाँति किया जाएगा।
धर्म सिंह- मेरा साथी जो चाहे सो करे, वह धनवान है, और मैं तो पाँच सौ रुपए से अधिक नहीं दे सकता, चाहे मारो, चाहे छोड़ो।
मरहठे चुप हो गए। संपतराव झट से कलमदान उठा लाया। कागज, कमल, दवात निकालकर धर्म की पीठ ठोंक, उसे लिखने को कहा। वह पाँच सौ रुपए लेने पर राजी हो गया था।
धर्म सिंह- जरा ठहरो। देखो, हमारा पालन-पोषण भलीभाँति करना, हमें एक साथ रखना, जिससे हमारा समय अच्छी तरह कट जाए। बेड़ियाँ भी निकाल दो।
संपतराव- जैसा चाहे वैसा भोजन करो। बेड़ियाँ नहीं निकाल सकता। शायद तुम भाग जाओ। हाँ, रात को निकाल दिया करुँगा।
धर्म सिंह ने पत्र लिख दिया। परंतु पता सब झूठ लिखा, क्योंकि मन में निश्चय कर चुका था कि कभी न कभी भाग जाऊँगा।
तब मरहठों ने चरनसिंह और धर्म सिंह को एक कोठरी में पहुँचा कर एक लोटा पानी, कुछ बाजरे की रोटियाँ देकर ऊपर से ताला बंद कर दिया।

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